गौरी श्योराण
मैं राजनीतिक बैकग्राउंड से आती हूं लेकिन राजनीति के बजाय मेरे पेरेंट्स ने मुझे बचपन से ही खेलों के प्रति प्रेरित किया। मेरे दादाजी श्री बहादुर सिंह हरियाणा के शिक्षा मंत्री रह चुके हैं जबकि पापा जगदीप सिंह जी भी आईएएस ऑफिसर हैं। मुझे इन दोनों पर गर्व है। मेरे भाई भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के शूटर रहे हैं। मैं फैशन और स्पोर्ट्स में कुछ बड़ा करना चाहती थी। जब छठी क्लास में थी, तब हॉबी के तौर पर मैंने शूटिंग की शुरुआत की।
तब से मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 26 पदक और विश्व यूनिवर्स्टी गेम्स में गोल्ड मेडल जीतने से काफी कॉन्फिडेंस बढ़ा। हमे हमेशा खेलों में कड़ी मेहनत का पाठ पढ़ाया जाता था, जो वास्तव में मेरे बहुत काम आया लेकिन मैं साथ ही यह भी कहूंगी कि कड़ी मेहनत के साथ ही स्मार्ट वर्क भी जरुरी है। अभिनव बिंद्रा के ओलिम्पिक मेडल जीतने के बाद काफी एथलीटों का शूटिंग के प्रति रुझान बढ़ा। बड़े मंच पर खेलने से एथलीट को अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों से प्रेरणा मिलती हैं। ऐसे आयोजनों में ही हमें इस बात का अहसास होता है कि हमने अभी और कितनी मेहनत की ज़रूरत है।
शूटिंग मे अभी ज़मीनी स्तर पर बहुत काम करने की जरुरत है। कोच, किट और खेलों से संबंधित उपकरण इसी स्तर पर दिए जाने चाहिए। यह ऐसा दौर होता है, जब खिलाड़ी को इन सब चीज़ों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। उपकरण भी औसत आय के व्यक्ति के लिए मुहैया कराना बहुत मुश्किल होता है। यह शुरुआत राष्ट्रीय या राज्य स्तर से पहले ही मिलनी चाहिए। ऐसा होने से बड़ी समस्याओं का हल हो जाएगा और इस खेल में और भी ज़्यादा टैलंट आएगा, ऐसा मेरा विश्वास है। कोच, किट और ट्रेनिंग के अलावा मानसिक तौर पर मज़बूती प्रदान करने के लिए भी कोचिंग की आवश्यकता होती है। वैसे भी यह खेल मानसिक दृढता से जुड़ा है। मैं तो यहां तक कहूंगी कि यह बात केवल शूटिंग पर ही नहीं, अन्य खेलों पर भी लागू होती है। तभी आप और ज़्यादा पदकों की उम्मीद कर सकते हैं।
पिछले दिनों मैं भोपाल में थी। आपको आश्चर्य होगा कि वहां आयोजित राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में पिस्टल और राइफल स्पर्धाओं में तकरीबन साढ़े नौ हज़ार एंट्रीज़ थीं। ज़ाहिर है कि कड़ी प्रतियोगिता के बीच काफी टैलंट उभरकर आते हैं। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि राष्ट्रीय चैम्पियनशिप की तुलना में इंटरनैशनल लेवल पर मेडल जीतना आसान है।