इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया का मीडिया भारत पर सपाट पिचों का आरोप लगा रहा
है। साथ ही उसका आरोप है कि भारत में स्पिन फ्रेंडली पिचों ने वर्ल्ड कप
का मज़ा किरकिरा कर दिया है। यहां ज़रूरी होगा इन आरोपों का बारीकी से
आकलन करना।
2015 का वर्ल्ड कप ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और 2019 का इंग्लैंड में।
दोनों बार मेजबान टीमें ही चैम्पियन बनीं। अगर इन दोनों वर्ल्ड कप
मुक़ाबलों के पहले आठ मैचों की तुलना मौजूदा वर्ल्ड कप के पहले आठ मैचों
से करें तो इस दौरान 300 का स्कोर 2015 की ही तरह इस बार भी छह बार पार
हुआ है। पिछले वर्ल्ड कप में ज़रूर इस दौरान पांच बार ऐसा हुआ था। जब सब
कुछ में बराबरी का हिसाब किताब है तो फिर भारत की विकेटों को सपाट कहना
उनके पूर्वाग्रहों को ही दिखाता है।
दूसरा आरोप स्पिन फ्रेंडली पिचों का लगाया गया है। सच्चाई यह है कि पहले
आठ मैचों में 63 फीसदी विकेट तेज़ गेंदबाज़ों को हासिल हुए हैं। अगर
मिचेल सेंटनर और मेहदी हसन जैसे स्पिनर चमके हैं तो वहीं इंग्लैंड के
लम्बे कद के रीस टोप्ले, पाकिस्तान के हसन अली और नीदरलैंड के बास डि
लीडे जैसे तेज़ गेंदबाजों ने एक ही मैच में चार विकेट चटकाकर खौफ पैदा
किया है। फिर यह कहना कि स्पिनरों को ध्यान में रखते हुए नर्मी दिखाई गई
है, बेबुनियाद आरोप है।
यहां गौरतलब है कि वर्ल्ड कप में पिचें आईसीसी के निर्देश पर बनती हैं।
पिचों का मिजाज़ कैसा होगा, इस बारे में मेजबान देश को कोई भी फैसला करने
का अधिकार नहीं है। वह स्टेडियम में मूलभूत सुविधाओं और अन्य रखरखाव के
लिए ज़िम्मेदार है। यहां अगर आरोप धर्मशाला मैदान की आउटफील्ड को लेकर
लगाया जाता तो बात समझ में आती क्योंकि वर्ल्ड कप के मेजबान शहरों का चयन
काफी पहले हो गया था और इस क्षेत्र में हिमाचल क्रिकेट एसोसिएशन को अपनी
ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाना चाहिए था। इस मैदान की आउटफील्ड पर कई पैच
लगाए गए हैं। मैदान समतल नहीं है। खिलाड़ियों को डाइव लगाने पर इंजरी हो
सकती है।
इस बार छक्के ज़रूर ज़्यादा देखने को मिल रहे हैं। बल्लेबाज़ों का
आक्रामक रवैया, पॉवरप्ले का अच्छा इस्तेमाल और छोटे मैदान इसकी वजह हो
सकते हैं लेकिन यहां गौरतलब है कि जितने रन बीच के ओवरों में बन रहे हैं,
उतने न तो शुरुआती पॉवरप्ले में बन रहे हैं और न ही आखिरी दस ओवरों के
पॉवरप्ले में बन रहे हैं। धर्मशाला की आउटफील्ड को छोड़ दें तो आयोजन
बढ़िया है। हां, अगर भारत के अलावा अन्य टीमों के मैचों में भी दर्शक आते
तो और अच्छा होता। ठीक उसी तरह जैसे 1987 के ईडन गार्डन में ऑस्ट्रेलिया
और इंग्लैंड के बीच खेले गए मैच के दौरान 70 हज़ार से ज़्यादा दर्शकों का
आना।