योगेश्वर दत्त
बचपन में मेरा और सुशील का एक ही सपना था – देश के लिए पदक जीतना। 1999 में जब हम दोनों ने पोलैंड में हुई वर्ल्ड कैडेट चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीता तो हमने ओलिम्पिक में पदक जीतने का लक्ष्य तय किया। तब हमारी
बात का खूब मजाक उड़ाया जाता लेकिन हम मेहनत करते गए और भगवान ने हमारी मुराद पूरी कर दी। सुशील ने ओलिम्पिक में दो पदक जीते और मैने एक। इस सफर में टीम और परिवार का भी बहुत योगदान रहा। खेल एक टीम वर्क है और बड़े कंप्टीशन में बिना किसी मदद के कोई भी अकेला पड़ सकता है। मैं कुश्ती छोड़ चुका हूं लेकिन अभी भी लोगों के मेरे प्रति सम्मान और प्यार में कोई कमी नहीं आई है।
हमारे देश में खिलाड़ी कैडेट और जूनियर स्तर पर तो गोल्ड मेडल जीत जाते हैं लेकिन सीनियर स्तर पर खिलाड़ियों को निराशा हाथ लगती थी। ओलिम्पिक में पदक जीतना तो दूर वहां तक पहुंचना ही बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी
लेकिन धीरे- धीरे लोगों और एथलीटों की सोच में बदलाव आया। नीरज चोपड़ा ने गोल्ड जीता, सायना नेहवाल सहित बहुत एथलीटों ने ओलिम्पिक में पदक जीते। हमारे खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन के दम पर पिछले कुछ ओलिम्पिक आयोजनों में पदकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। ओलिम्पिक में बेहतर प्रदर्शन खिलाड़ियों की बदली मानसिक सोच का एक उदाहरण है।
कुश्ती भी अच्छा खासा महंगा खेल है। ग्रास रूट लेवल के खिलाड़ी के लिए भी तकरीबन हर महीने 20 से 25 हजार रुपए तक डाइट सहित ट्रेनिंग खर्च आता है। सरकार ने विभिन्न तरह की स्कॉलरशिप और योजनाएं चलाकर खिलाड़ियों के लिए
जमीनी स्तर पर काम किया है लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत गुंजाइश है। कारपोरेट जगत को भी जमीनी स्तर से एथलीटों को सपोर्ट करना चाहिए। ओलिम्पिक पदक विजेताओं को तो स्पॉन्सर मिल जाते हैं लेकिन किसी गांव के
14 साल के उभरते पहलवान से लेकर सीनियर स्तर के पहलवान तक के सफर में कई दिक्कतें आती हैं। सरकार के अलावा खेलों में उम्दा परिणाम के लिए कारपोरेट जगत को बगैर किसी स्वार्थ के खिलाड़ियों को हर तरह से सपोर्ट
करने की जरूरत है। अगर मुझे भी मेरे जूनियर दिनों में वर्ल्ड क्लास ट्रेनिंग और बेहतर डाइट मिलती तो शायद मैं और भी पदक जीत जाता।
(लेखक ओलिम्पिक पदक विजेता पहलवान हैं)