~जफर इकबाल
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसान हो गईं। गालिब की यह पंक्तियां और एक एथलीट का जीवन का बहुत मेल खाता है। एक खिलाड़ी के लिए खेलना है तो खेलना है चाहे उसको कितनी ही मुश्किलों का सामना क्यों न करना पड़े। कठिनाइयों से संघर्ष करते-करते वह उन परिस्थितियों में ही खेल का आंनद उठाने लगता है और फिर लगातार सचिन तेडुंलकर और मदन लाल जैसे महानों की तरह वर्षो तक अपने खेल में आगे बढ़ता जाता है। खेल हमें बहुत कुछ सिखाता है। हार और जीत दोनों परिणामों में एथलीट कुछ नया सीखता है। खेलों में एक पॉजीटिव वातावरण देखने को मिलता है। प्रतिद्वंदी मुकाबले के एक बाद एक दूसरे की तारीफ करते हुए सुने जा सकते हैं। मेरे ट्रेनिंग के दिनों हम सभी खिलाड़ी एक ही बाल्टी से पानी पीते थे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था, कौन कहां से और किस बैकग्राउंड से आया है।
मेडल तक पहुंचना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। खिलाड़ी ने उस मुकाम तक पहुंचने के लिए न जाने कितने त्याग किए होते हैं। खुद एक हॉकी खिलाड़ी होने के नाते मुझे पता है कि स्वर्ण तो दूर यहां रजत और ब्रांज मेडल तक पहुंचने के पीछे कितनी मेहनत करनी होती है। छह से आठ घंटे रोज लगातार मेहनत और फिर भी गोल्ड न जीतने पर लोग आलोचना ही करते हैं। तब एक खिलाड़ी का दर्द दूसरा खिलाड़ी ही समझ सकता है। एक बार मैं अपने साथियों के साथ दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम में अभ्यास कर रहा था तभी वहां मौजूद पूर्व क्रिकेटर स्वश्री बिशन सिंह बेदी ने मुझसे कहा, “यार क्रिकेट में तो हम पसीना ही बहाते हैं लेकिन तुम तो अपना लहु भी बहा रहे हो।” खेल जगत में चाहे वह क्रिकेट हो या हॉकी या फिर कोई अन्य दूसरा खेल सभी एथलीट एक दूसरे की हौसला अफजाई करते हैं। हमारे समय में ज्यादा सुविधाएं नहीं थी। उस समय हमारे पास साइकोलॉजिस्ट की व्यवस्था नहीं थी। 1980 का मॉस्को हॉकी गोल्ड मेडल हमने बैरेक्स में रहकर जीता था। जुलाई महीने की भीषण गर्मी में रोज दिन में हमारे तीन प्रैक्टिस सेशन चलते थे। उस गर्मी में हमारे पास कूलर की सुविधा नहीं थी। बाद में मेरे कहने पर किसी तरह नेहरु स्टेडियम में एक कूलर की व्यवस्था की गई । मतलब सुविधाओं का बहुत अभाव था।
आजकल तो कंडीशन बेहतर हुई हैं। अब खिलाड़ियों की मेंटल हेल्थ पर ध्यान दिया जा रहा है। बस आज की युवा पीढ़ी से यही कहना है कि जो सोचा वह कर के ही दम लेना है। हिम्मत नही हारनी है।
(लेखक मॉस्को ओलिम्पिक 1980 में गोल्ड मेडलिस्ट भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे।)