– मनोज जोशी
इसे ऑल इंडिया फुटबॉल एसोसिएशन की करीब दस वर्षों से चल आ रही मनमानी
कहें या कुछ और। फुटबॉल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा ने उसे आइना दिखा
दिया है। उसी की वजह से सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित प्रशासकों की समिति
(COA) को अपमानित होना पड़ा। खिलाड़ियों को वोटिंग राइट्स देने के फैसले
पर बैकफुट पर आना पड़ा। अगर एआईएफएफ पर फीफा का बैन नहीं हटा तो महिलाओं
के अंडर 17 वर्ल्ड कप की मेजबानी भारत से छीना जाना तय है और फुटबॉल के
विकास में आगे आने वाली आई लीग और इंडियन सुपर लीग के तो जैसे इस फैसले
से होश ही उड़ गये। वियतनाम और सिंगापुर से होने वाले भारतीय टीम के मैच
और साथ ही एएफसी कप में भारतीय क्लबों की भागीदारी खटाई में पड़ जाएगी और
इससे भी बड़ी बात यह कि भारत को फीफा की तकरीबन 24 करोड़ रुपये के बड़े
अनुदान की राशि से हाथ धोना पड़ सकता है।
फीफा ने तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के कारण एआईएफएफ को तत्काल प्रभाव से
निलंबित कर दिया है जो इस संस्था के गठन के बाद से 85 साल की सबसे बड़ी
घटना है। फीफा के नियमों के गंभीर उल्लंघन की वजह से यह निर्णय लिया गया
है। एआईएफएफ पर चुनाव समय पर न कराने से लेकर तमाम ऐसे आरोप हैं जिसे
फीफा बरसों से पचा नहीं पा रहा था। रही सही कसर प्रशासकों की समिति के
गठन से पूरी हो गई। फीफा ने तो यहां तक कह दिया है कि निलम्बन तभी हटेगा
जब सीओए के गठन का फैसला वापस लिया जाए और एआईएफएफ को रोजमर्रा के काम
सौंपे जाएं। क्या फीफा का यह कदम सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं है। सीओए
फेडरेशन के कामकाज में पारदर्शिता लाने और सरकारी दिशानिदेशों का पालन
करते हुए फेडरेशन के संविधान में संशोधन करने का बड़ी ज़िम्मा सम्भालती
है लेकिन फीफा का कहना है कि ये संशोधन फेडरेशन की जनरल बॉडी से एप्रूव
नहीं कराए गए हैं। यानी स्वायतता (autonomous) के नाम पर नियमों का
उल्लंघन करने वाली एक बिगड़ैल संस्था अगर मनमानी करती है। चुनावों से
बचती है तो वह भला इन संशोधनों के लिए कैसे तैयार हो सकती है।
एआईएफएफ की बरसों से चुनाव से बचने वाली बात कई राज्य एसोसिएशनों को भी
रास नहीं आ रही थी। फुटबॉल में आज बंगाल, केरल, राजस्थान और दिल्ली की
राज्य एसोसिएशनें भी राज्य स्तर पर लीग कराने की वजह से काफी मज़बूत हो
गई हैं। ये सभी एसोसिएशनें एआईएफएफ के सख्त खिलाफ हैं। विश्वस्त सूत्रों
के अनुसार इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन एआईएफएफ के खिलाफ विरोध में सबसे आगे
है। यह कोलकाता बेस्ड इकाई है जिसके अध्यक्ष पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी के भाई अजित बनर्जी हैं। टेलीग्राफ समूह के सुब्रत दत्ता और
अनिर्बान दत्ता के रूप में पिता-पुत्र की जोड़ी भी इस दिशा में खासी
सक्रिय है। बहुत सम्भावना इस बात की भी है कि यह ग्रुप अगले दिनों में
कोई नई फेडरेशन गठित करके उसका प्रस्ताव फीफा के सामने रख दे।
आज प्रशासकों की समिति भी बैकफुट पर है। उसने 36 राज्य एसोसिएशनों के
प्रतिनिधियों के अलावा देश के 36 प्रमुख खिलाड़ियों को वोटिंग राइट्स दिए
थे मगर अब उसने खिलाड़ियों के हितों को ध्यान में रखते हुए फीफा की हर
शिकायत पर डिफेंसिव रुख अपना लिया है क्योंकि फीफा ने इसके लिए 25 फीसदी
प्रमुख खिलाड़ियों को वोटिंग राइट्स देने की बात मानी है, इससे अधिक
नहीं। इस कमिटी को सुप्रीम कोर्ट ने गठित किया है। यानी इस कमिटी को इस
हालात में पहुंचाने के लिए एआईएफएफ भी उतना ही ज़िम्मेदार है। अगर मामला
नहीं सुलझा तो 11 से 31 अक्टूबर तक भारत में होने वाले अंडर 17 के महिला
वर्ल्ड कप के राइट्स भारत से छिनना तय है। साथ ही आई लीग से लेकर इंडियन
सुपर लीग का देश से अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। इन टीमों के मालिकों का
करोड़ों का नुकसान हो जाएगा। आज आई लीग में भाग लेने वाली एक टीम एक साल
में 20 से 25 करोड़ रुपये खर्च करती है। इनमें करीब छह से सात करोड़
रुपये तो खिलाड़ियों पर ही खर्च हो जाते हैं। इनमें तकरीबन 40 से 50
फीसदी राशि विदेशी खिलाड़ियों पर खर्च की जाती है जो जीत सुनिश्चित करने
में बड़े कारण साबित होते हैं। इसी तरह आईएसएल का एक क्लब तकरीबन 60
करोड़ रुपये तक खर्च करता है। अब अगर फीफा का बैन जारी रहता है
तो इन क्लबों को विदेशी खिलाड़ी नहीं मिल पाएंगे और इन दोनों बड़ी लीगों
का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
फीफा इसी सरकारी हस्तक्षेप की वजह से ज़िम्बाब्वे और केन्या पर बैन लगा
चुकी है। पांच साल पहले पाकिस्तान पर और आठ साल पहले नाइजीरिया पर भी
इन्हीं कारणों की वजह से बैन लगे। इराक पर 2008 में पहली बार बैन लगा था।
इन सबमें एक बात कॉमन है। बैन बहुत कम समय के लिए लगा जिसे आम तौर पर साल
भर में हटा लिया गया।
आज देश में हॉकी और फुटबॉल के अलावा इंडियन ओलिम्पिक एसोसिएशन को सीओए
चला रहा है। आर्चरी और बॉक्सिंग फेडरेशन के झगड़ों ने भी विवाद का रूप
लिया है। ऐसे विवादों में सबसे ज़्यादा नुकसान खिलाड़ियों का ही होता है।